तुष्टीकरण का दंश
दीपक द्विवेदी
जिस वक्फ कानून पर पहले संयुक्त संसदीय समिति में व्यापक चर्चा हुई और फिर संसद के दोनों सदनों में रिकॉर्ड बहस के बाद जिसे पारित किया गया और अंत में राष्ट्रपति के द्वारा जिस पर हस्ताक्षर कर के कानून का रूप दे दिया गया हो; उस पर जिस प्रकार की मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति एवं बंगाल के मुर्शिदाबाद में जो वीभत्स और निंदनीय हिंसा हुई, उसे किसी भी तरीके से उचित नहीं ठहराया जा सकता। विरोध जताने के तमाम शांतिपूर्ण तरीके मौजूद हैं और यदि किसी मुद्दे पर असहमति है तो उस पर विचार के लिए सुप्रीम कोर्ट भी मौजूद है। तमाम पार्टियों एवं लोगों ने सुप्रीम कोर्ट में वक्फ कानून के विरोध में 75 से अधिक याचिकाएं दायर की हैं जिनमें अधिकतर उसके विरोध में हैं। उन पर सुप्रीम कोर्ट विचार भी कर रहा है। हालांकि यह बात दीगर है कि प्रारंभिक सुनवाई में इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट की वर्तमान टिप्पणियां कई लोगों को रास नहीं आईं और वे उनकी आलोचना भी कर रहे हैं। उनका कहना है कि शीर्ष कोर्ट को मुर्शिदाबाद हिंसा पर और कड़े निर्देश पश्चिम बंगाल सरकार को देने चाहिए थे जो मुर्शिदाबाद की हिंसा को रोकने में पूरी तरह से विफल रही। सुप्रीम कोर्ट ने संशोधित वक्फ कानून की सुनवाई करते हुए इस कानून के विरोध के बहाने हुई हिंसा पर चिंता तो जताई पर बेहतर होता कि वह केवल इतने तक ही सीमित नहीं रहता। उसे वक्फ कानून के विरोध के नाम पर हिंसा करने वालों को सख्त संदेश देने के साथ ही राज्य सरकारों और विशेष रूप से बंगाल सरकार को हिंसा पर हर हाल में लगाम लगाने के निर्देश देने चाहिए थे। सुप्रीम कोर्ट को इसका भी संज्ञान लेना चाहिए था कि मुर्शिदाबाद में वक्फ कानून विरोधियों की भीषण हिंसा के चलते वहां के अनेक हिंदुओं को जान बचाने के लिए पलायन करना पड़ा। वे कब घरों को लौट पाएंगे, यह भी पता नहीं? मुर्शिदाबाद की हिंसा पर ध्यान देने की अपेक्षा इसलिए भी थी क्योंकि उसके समक्ष इसकी गुहार लगाई जा चुकी थी। आरोप यह भी है कि मुस्लिम तुष्टीकरण के चलते न तो मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और न ही उनके मंत्रिमंडल का कोई मंत्री दंगा पीड़ित हिंदुओं का दुख-दर्द जानने पहुंचा। यहां तक कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी इसे सामान्य सी हिंसा बताती दिख रही हैं। यहां यह स्थिति भी अत्यंत शोचनीय है कि छोटी-छोटी बातों पर हो हल्ला मचाने वाले विपक्षी दल मुस्लिम वोटों को बचाने के चक्कर में मुर्शिदाबाद हिंसा एवं हिंदुओं के पलायन के मुद्दे पर जुबान सी कर बैठे हैं।
किसी भी दृष्टि से किसी भी लोकतंत्र के लिए किसी भी समुदाय के दुख-दर्द से मात्र वोटों की खातिर मुंह मोड़ना और तुष्टीकरण की हदें पार कर जाना श्रेयस्कर नहीं है। विपक्ष कितना भी आरोप लगाए पर सचाई यही है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की राजनीति की शुरुआत ही वोट बैंक की राजनीति के दबाव से बाहर निकलने की रही है। यह उन्होंने गुजरात में कर के दिखाया। इसके बाद तमाम डर और धमकियों के बीच वक्फ कानून में संशोधन में जिस तरह प्रधानमंत्री मोदी के दोनों राजनीतिक मददगारों, चंद्रबाबू नायडू ने आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के लोगों की लगातार धमकियों की परवाह किए बिना और नीतीश कुमार ने बिहार में आगामी विधानसभा चुनाव की चिंता को दरकिनार कर दृढ़ता से साथ दिया; वह इतिहास में सदैव याद किया जाएगा। इससे एक बात तो साबित हो गई कि अब देश में मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति के समाप्त होने का समय नजदीक आ रहा है। इसके साथ ही मुस्लिम भाइयों को भी अब यह समझना होगा कि वे देश की मुख्यधारा में शामिल हो कर सबके साथ आगे बढ़ें; न कि किसी का वोट बैंक बन कर। इसी में मुस्लिम भाइयों, देश व अन्य सभी की भलाई और विकास का राज छिपा है। पीएम मोदी अब यही कोशिश मुस्लिम वोट बैंक के मामले में भी करते नजर आ रहे हैं। वह मुस्लिमों को ‘भारतीय पहचान’ सबसे आगे रखने के लिए तैयार करने की कोशिश कर रहे हैं। मोदी हिंदू एकता से आगे ‘हम भारत के लोग’ की अवधारणा को मजबूत करके दिखाने का प्रयास कर रहे हैं। मोदी यह स्थापित कर देना चाहते हैं कि देश की बेहतरी तभी हो सकती है, जब सबके लिए बेहतरी के एकसमान अवसर सरकारी नीतियों से मिलें। यही वजह है कि मोदी सरकार की योजनाओं पर किसी भी वर्ग के लिए भेदभाव का रंच मात्र भी आरोप नहीं है। भाजपा शासित राज्यों में दंगे न्यूनतम होते हैं, यह बात भी आंकड़ों से स्थापित हो चुकी है। इसलिए अब वक्त आ गया है कि देश की खातिर हम सब मिल कर तुष्टीकरण के दंश को जड़ से मिटा दें।
पीएम मोदी अब यही कोशिश मुस्लिम वोट बैंक के मामले में भी करते नजर आ रहे हैं। वह मुस्लिमों को ‘भारतीय पहचान’ सबसे आगे रखने के लिए तैयार करने की कोशिश कर रहे हैं। मोदी हिंदू एकता से आगे ‘हम भारत के लोग’ की अवधारणा को मजबूत करके दिखाने का प्रयास कर रहे हैं।
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