बचपन की यादों का सफर: 'हिन्द युग्म' की 'तीन' में जिंदा है नॉस्टेल्जिया का रंग
'डॉर्क हॉर्स' जैसी बेस्टसेलर दे चुके प्रकाशन 'हिन्द युग्म' ने एक बार फिर पाठकों के दिलों की गहराइयों को छूने वाली किताब लॉन्च की है. अमित श्रीवास्तव की 'तीन' उन सभी के लिए एक भावनात्मक टाइम-कैप्सूल है, जो कभी कस्बाई जीवन की सादगी में जीते थे या उस दौर की यादों को संजोए हुए हैं. 'गहन है यह अन्धकारा' के लेखक ने इस किताब में बचपन के उन पलों को शब्दों में पिरोया है, जहां गणित का डर, किशोर मन के उलझे सवाल, और घर की महक एक साथ जिंदा हो उठते हैं. यह किताब पढ़ते हुए हर पाठक खुद को उस दौर में खोजेगा, जब जिंदगी साइकिल के पहियों और मां की पुड़ियों की गर्माहट तक सिमटी हुई थी.
कवर पेज और अशोक पाण्डे
अतीत की तरफ झांकता किताब का कवर पेज, किताब के बारे में यह अनुमान लगवाता है कि इसमें लेखक की यादों की पोटली से निकले हुए कुछ शब्द होंगे. सोशल मीडिया पर काफ़ी पढ़े जाने वाले 'लपूझन्ना' किताब के लेखक अशोक पाण्डे ने इसकी भूमिका लिखी है, जिसमें उन्होंने पूरी किताब के बारे में बड़े विस्तार से जानकारी दी है, इसे पढ़ने के बाद पाठक अमित श्रीवास्तव की इस किताब को पढ़ना एक अवसर की तरह स्वीकार करेंगे.
लेखक के साथ नॉस्टेल्जिया में खोना है तो पढ़ लीजिए यह किताब
'फौरी समाधान के लिए जींस पर बाल शिक्षा निकेतन मुद्रित बकल वाली चौड़ी बेल्ट, जिसे रहना तो स्वेटर के अंदर ही है समझकर बुझे मन से ही अटकाया गया.' लेखक ऐसी पंक्तियों के जरिए अपने दौर की उन यादों में खोए हुए हैं, जिन्हें अब आसपास ढूंढना तो मुश्किल है ही साथ ही साहित्य में भी इस तरह उन्हें कम लिखा जा रहा है. पुराने और नए का टकराव भी वह बड़े ही रोचक अंदाज़ में लिखते हैं 'इस पर बैठकर खाते हैं क्या? पापा ने पित्जा के खुले डिब्बे से उठती सुगंध को दुर्गंध की तरह ट्रीट करते हुए पहले नाक सिकोड़ी फिर उस गोल तश्तरी- नुमा खाद्य सामग्री को घेरते हुए पूछा'.
किताब में हमें लेखक के रूप में वह इंसान दिख रहा है जो अपने बचपन की उन तमाम यादों को शब्दों के जरिए जी रहा है जिसे हम सब भी कभी न कभी याद करते ही हैं. इस किताब में ऐसा बच्चा है जो गणित से डरता है, उसके मन में अपनी उसकी क्लास की लड़कियों के बारे में विचार आते हैं. वह बढ़ता हुआ बच्चा है जो सेक्स एजुकेशन में रुचि तो रखता है लेकिन हमारी शिक्षा व्यवस्था में उससे दूरी बनाई जाती है, इसका उदाहरण पृष्ठ 191 में लिखी यह पंक्तियां हैं 'जीव विज्ञान की कक्षाओं में प्रजनन क्रिया को स्वयं पढ़कर क्योंकि शारदा मैडम ने इस्वाले अध्याय से प्रस्न नई आएगा अगला अध्याय खोलो सब लोग'.
कस्बाई महिला ही करती रहीं हैं घर का नियंत्रण, स्पष्ट तौर पर इस सत्य को नियंत्रित रखते लेखक
अमित श्रीवास्तव की किताब 'तीन' में मां का चित्रण ठीक वैसा ही है, जैसा आज से चालीस पचास साल पहले कस्बाई क्षेत्र में महिलाओं का रहा होगा. घर के पुरुषों के बीच में बैठकर भी एक महिला पित्ज़ा के बारे में अपनी राय रख रही है, वह लिखते हैं- चेंज ओरिएंटेड मम्मी ने कहा "महंग होए". ऐसे ही बच्चों पर मां का नियंत्रण भी हम स्पष्ट रूप से पढ़ते हैं, "रात ठीक से नींद आय रही?" अम्मा पूड़ी डायरेक्ट आग पर गर्म करके दे रही थी और कमाल ये था कि एक किनारा तक न जल रहा था.
कस्बाई महिलाओं की घरेलू कार्यों में दक्षता को सामने लाते, लेखक ने महिलाओं का समाज में सशक्त चित्रण करते लिखा है "अम्मा के पास चींटों से गुड़ बचाने के एक सौ तरीके थे लेकिन बानरों से लगातार चुनौती मिल रही थी."
नाम और चेहरों के किस्से पढ़ाते बचपन की यादों में पाठकों को मशगूल रखते लेखक
ढिबरी मास्साब, सरजूडा, घर घुसरू खेल कुछ वैसे ही शब्द हैं, जिन्हें हर किसी ने बचपन में बोला ही होगा और लेखक इन्हें लिखते पाठकों को उनके बचपन में लेकर चले जाते हैं. किताब में चचा पोख्ता का किस्सा कुछ ऐसा ही है, कुछ ही दिनों बाद चाचा पोख्ता पधारे. उनका असली नाम कुछ और था. एक दफा ये बताते हुए कि वह घर से क्या खाना खाकर आए हैं, उन्होंने कहा आज घरे लौकी पोख्ता बना रहा. उनका आशय निसंदेह कोफ्ता से था.
ऐसे ही एक जगह लेखक लिखते हैं परमानेंट रिहाइश की वजह से कालांतर में जिन्हें ओलदगंज वाले चाचा कहा गया.
अपने दूधिया का अनोखा चित्रण करते हुए लेखक सभी दूधियों का चेहरा पाठकों के सामने ले आते हैं, 'जिससे माथे का पसीना पोछने के बाद जिस अदा से भकाभक चेहरे को हवा दी जाती थी, इस बात की पुष्टि होती थी कि दुहते वक्त इसी से भैंस पर लिपट रही मक्खियां किस तरह भगाई जाती होंगी.'
बदलते समाज को अपने ही अंदाज में लिखे गए अमित
दहेज के परंपरागत चार यार छाता, छड़ी, रेडियो और साइकिल में साइकिल की जगह लंब्रेटा ने ले ली थी क्योंकि अब दहेज के हैं चार यार ड्रेसिंग, सोफा, बेड और कार संभव हो सका. अपनी बढ़ती उम्र के साथ समाज में आ रहे इन बदलावों को देख रहे लेखक ने बड़े ही चुटीले अंदाज़ में लिखते हुए किताब को आगे बढ़ाया है. लगभग सभी पाठकों के लिए लेखक की इन पंक्तियों से दहेज के मॉडर्न रूप को समझना आसान हो जाएगा 'जिसने मध्यम वर्गीय सपनों को ये बुलेट मेरी जॉ के दुचक्के से मेरा सपना मेरी मारुती के चार चक्के पर उचका दिया.
जौनपुर टू अमरीका और इतिहास-भूगोल की पढ़ाई, अमरीका की नीतियों पर भी लिख गए हैं लेखक
लेखक इस किताब में जौनपुर और अमरीका की तुलना बार-बार करते दिखते हैं. कुछ साल पहले के अमरीका और भारत को समझने के लिए यह किताब उपयोगी है, 'जिस वक्त जौनपुर के नवयुवक लाल प्यारे श्याम, राज दिलीप देव एंड इन दैट सीक्वेंस टू, की तिकड़ी के लिए सिनेमा हॉल की टिकट खिड़की पर हाथ घुसाए रहते थे. सात समंदर पार अमरीका में मनोरंजन, बॉक्स ऑफिस से बुद्धू बक्से पर शिफ्ट कर चुका था.'
किताब के 14वें हिस्से में अमरीका की उन नीतियों के बारे में पता चलता है जो दुनिया के प्राकृतिक संसाधनों पर अपना अधिकार जताती हैं, सिक्योवा और चिरोकी जनजाति के बारे में पढ़ना रोचक है. जोसेफ, पुजोल, तपुति के बारे में लिखते हुए पाठकों की इतिहास पर समझ भी बढ़ाई गई है. यह किताब उन सभी के लिए है जो मानते हैं कि यादें ही असली धन होती हैं.
(हिमांशु जोशी उत्तराखंड से हैं और प्रतिष्ठित उमेश डोभाल स्मृति पत्रकारिता पुरस्कार प्राप्त हैं. वह कई समाचार पत्र, पत्रिकाओं और वेब पोर्टलों के लिए लिखते रहे हैं.)
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.
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